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वरदान--मुंशी प्रेमचंद

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अब तक इस तपाश्रम का प्रधान एण्तोनी था। पर अब उसकी अवस्था सौ वर्ष की हो चुकी थी। इसीलिए वह इस स्थान को त्याग कर अपने दो शिष्यों के साथ जिनके नाम मकर और अमात्य थे, एक पहाड़ी में विश्राम करने चला गया था। अब इस आश्रम में पापनाशी नाम के एक साधू से बड़ा और कोई महात्मा न था। उसके सत्कर्मों की कीर्ति दूरदूर फैली हुई थी और कई तपस्वी थे जिनके अनुयायियों की संख्या अधिक थी और जो अपने आश्रमों के शासन में अधिक कुशल थे। लेकिन पापनाशी व्रत और तप में सबसे आगे ब़ढा हुआ था, यहां तक कि वह तीनतीन दिन अनशन वरत रखता था रात को और परातःकाल अपने शरीर को बाणों से छेदता था और वह घण्टों भूमि पर मस्तक नवाये पड़ा रहता था।
उसके चौबीस शिष्यों ने अपनीअपनी कुटिया उसकी कुटी के आसपास बना ली थीं और योगक्रियाओं में उसी के अनुगामी थे। इन धर्मपुत्रों में ऐसेऐसे मनुष्य थे जिन्होंने वर्षों डकैतियां डाली थीं, जिनके हाथ रक्त से रंगे हुए थे, पर महात्मा पापनाशी के उपदेशों के वशीभूत होकर अब वह धार्मिक जीवन व्यतीत करते थे और अपने पवित्र आचरणों से अपने सहवर्गियों को चकित कर देते थे। एक शिष्य, जो पहले हब्श देश की रानी का बावरची था, नित्य रोता रहता था। एक और शिष्य फलदा नाम का था जिसने पूरी बाइबिल कंठस्थ कर ली थी और वाणी में भी निपुण था। लेकिन जो शिष्य आत्मशुद्धि में इन सबसे ब़कर था वह पॉल नाम का एक किसान युवक था। उसे लोग मूर्ख पॉल कहा करते थे, क्योंकि वह अत्यन्त सरल हृदय था। लोग उसकी भोली-भाली बातों पर हंसा करते थे, लेकिन ईश्वर की उस पर विशेष कृपादृष्टि थी। वह आत्मदर्शी और भविष्यवक्ता था। उसे इलहाम हुआ करता था।

पापनाशी का जन्मस्थान इस्कन्द्रिया था। उसके मातापिता ने उसे भौतिक विद्या की ऊंची शिक्षा दिलाई थी। उसने कवियों के शृंगार का आस्वादन किया था और यौवनकाल में ईश्वर के अनादित्व, बल्कि अस्तित्व पर भी दूसरों से वादविवाद किया करता था। इसके पश्चात कुछ दिन तक उसने धनी पुरुषों के परथानुसार ऐन्द्रिय सुखभोग में व्यतीत किये, जिसे याद करके अब लज्जा और ग्लानि से उसको अत्यन्त पीड़ा होती थी। वह अपने सहचरों से कहा करता 'उन दिनों मुझ पर वासना का भूत सवार था।' इसका आशय यह कदापि न था कि उसने व्यभिचार किया था; बल्कि केवल इतना कि उसने स्वादिष्ट भोजन किया था और नाटयशालाओं में तमाशा देखने जाएा करता था। वास्तव में बीस वर्ष की अवस्था तब उसने उस काल के साधारण मनुष्यों की भांति जीवन व्यतीत किया था। वही भोगलिप्सा अब उसके हृदय में कांटे के समान चुभा करती थी। दैवयोग से उन्हीं दिनों उसे मकर ऋषि के सदुपदेशों को सुनने का सौभाग्य पराप्त हुआ। उसकी कायापलट हो गयी। सत्य उसके रोमरोम में व्याप्त हो गया, भाले के समान उसके हृदय में चुभ गया। बपतिस्मा लेने के बाद वह साल भर तक और भद्र पुरुषों में रहा, पुराने संस्कारों से मुक्त न हो सका। लेकिन एक दिन वह गिरजाघर में गया और वहां उपदेशक को यह पद गाते हुए सुना-'यदि तू ईश्वरभक्ति का इच्छुक है तो जा, जो कुछ तेरे पास हो उसे बेच डाल और गरीबों को दे दे।' वह तुरन्त घर गया, अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर गरीबों को दान कर दी और धमार्श्रम में परविष्ट हो गया और दस साल तक संसार से विरक्त होकर वह अपने पापों का परायश्चित करता रहा।

एक दिन वह अपने नियमों के अनुसार उन दिनों का स्मरण कर रहा था, जब वह ईश्वरविमुख था और अपने दुष्कर्मों पर एकएक करके विचार कर रहा था। सहास याद आया कि मैंने इस्कन्द्रिया की एक नाटयशाला में थायस नाम की एक रूपवती नटी देखी थी। वह रमणी रंगशालाओं में नृत्य करते समय अंगपरत्यंगों की ऐसी मनोहर छवि दिखाती थी कि दर्शकों के हृदय में वासनाओं की तरंगें उठने लगती थीं। वह ऐसा थिरकती थी, ऐसे भाव बताती थी, लालसाओं का ऐसा नग्न चित्र खीचंती थी कि सजीले युवक और धनी वृद्ध कामातुर होकर उसके गृहद्वार पर फूलों की मालाएं भेंट करने के लिए आते। थायस उसका सहर्ष स्वागत करती और उन्हें अपनी अंकस्थली में आश्रय देती। इस परकार वह केवल अपनी ही आत्मा का सर्वनाश न करती थी, वरन दूसरों की आत्माओं का भी खून करती थी।

पापनाशी स्वयं उसके मायापाश में फंसतेफंसते रह गया था। वह कामतृष्णा से उन्मत्त होकर एक बार उसके द्वार तक चला गया था। लेकिन वारांगना के चौखट पर वह ठिठक गया, कुछ तो उठती हुई जवानी की स्वाभाविक कातरता के कारण और कुछ इस कारण कि उसकी जेब में रुपये न थे, क्रूोंकि उसकी माता इसका सदैव ध्यान रखती थी कि वह धन का अपव्यय न कर सके। ईश्वर ने इन्हीं दो साधनों द्वारा उसे पाप के अग्निकुण्ड में गिरने से बचा लिया। किन्तु पापनाशी ने इस असीम दया के लए ईश्वर को धन्यवाद दिया; क्योंकि उस समय उसके ज्ञानचक्षु बन्द थे। वह न जानता था कि मैं मिथ्या आनन्दभोग की धुन में पड़ा हूं। अब अपनी एकान्त कुटी में उसने पवित्र सलीब के सामने मस्तक झुका दिया और योग के नियमों के अनुसार बहुत देर तक थायस का स्मरण करता रहा क्योंकि उसने मूर्खता और अन्धकार के दिनों में उसके चित्त को इन्द्रियसुख-भोग की इच्छाओं से आन्दोलित किया था। कई घण्टे ध्यान में डूबे रहने के बाद थायस की स्पष्ट और सजीव मूर्ति उसके हृदयनेत्रों के आगे आ खड़ी हुई। अब भी उसकी रूपशोभा उतनी ही अनुपम थी जितनी उस समय जब उसने उसकी कुवासनाओं को उत्तेजित किया था। वह बड़ी कोमलता से गुलाब की सेज पर सिर झुकाये लेटी हुई थी। उसके कमलनेत्रों में एक विचित्र आर्द्रता, एक विलक्षण ज्योति थी। उसके नथुने फड़क रहे थे, अधर कली की भांति आधे खुले हुए थे और उसकी बांहें दो जलधाराओं के सदृश निर्मल और उज्ज्वल थीं। यह मूर्ति देखकर पापनाशी ने अपनी छाती पीटकर कहा-"भगवान तू साक्षी है कि मैं पापों को कितना घोर और घातक समझ रहा हूं।"

धीरेधीरे इस मूर्ति का मुख विकृत होने लगा, उसके होंठ के दोनों कोने नीचे को झुककर उसकी अन्तवेर्दना को परकट करने लगे। उसकी बड़ीबड़ी आंखें सजल हो गयीं। उसका वृक्ष उच्छ्वासों से आन्दोलित होने लगा मानो तूफान के पूर्व हवा सनसना रही हो! यह कुतूहल देखकर पापनाशी को मर्मवेदना होने लगी। भूमि पर सिर नवाकर उसने यों परार्थना की-'करुणामय ! तूने हमारे अन्तःकरण को दया से परिपूरित कर दिया है, उसी भांति उसे परभात के समय खेत हिमकणों से परिपूरित होते हैं। मैं तुझे नमस्कार करता हूं! तू धन्य है। मुझे शक्ति दे कि तेरे जीवों को तेरी दया की ज्योति समझाकर परेम करुं, क्योंकि संसार में सब कुछ अनित्य है, एक तू ही नित्य, अमर है। यदि इस अभागिनी स्त्री के परति मुझे चिन्ता है तो इसका कारण है कि वह तेरी ही रचना है। स्वर्ग के दूत भी उस पर दयाभाव रखते हैं। भगवान्, क्या यह तेरी ही ज्योति का परकाश नहीं है ? उसे इतनी शक्ति दे कि वह इस कुमारी को त्याग दे। तू दयासागर है, उसके पाप महाघोर, घृणित हैं और उनके कल्पनामात्र ही से मुझे रोमांच हो जाता है। लेकिन वह जितनी पापिष्ठा है, उतना ही मेरा चित्त उसके लिए व्यथित हो रहा है। मैं यह विचार करके व्यगर हो जाता हूं कि नरक के दूत अन्तकाल तक उसे जलाते रहेंगे।'

वह यही परार्थना कर रहा था कि उसने अपने पैरों के पास एक गीदड़ को पड़े हुए देखा। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसकी कुटी का द्वार बन्द था। ऐसा जान पड़ता था कि वह पशु उसके मनोगत विचारों को भांप रहा है वह कुत्ते की भांति पूंछ हिला रहा था। पापनाशी ने तुरन्त सलीब का आकार बनाया और पशु लुप्त हो गया। उसे तब ज्ञात हुआ कि आज पहली बार राक्षस ने मेरी कुटी में परवेश किया। उसने चित्तशान्ति के लिए छोटीसी परार्थना की और फिर थायस का ध्यान करने लगा।
उसने अपने मन में निश्चय किया ? 'हरीच्छा से मैं अवश्य उसका उद्घार करुंगा।' तब उसने विश्राम किया।
दूसरे दिन ऊषा के साथ उसकी निद्रा भी खुली। उसने तुरन्त ईशवंदना की और पालम सनत से मिलने गया जिनका आश्रम वहां से कुछ दूर था। उसने सन्त महात्मा को अपने स्वभाव के अनुसार परफुल्लचित्त से भूमि खोदते पाया। पालम बहुत वृद्ध थे। उन्होंने एक छोटीसी फुलवाड़ी लगा रखी थी। वनजन्तु आकर उनके हाथों को चाटते थे और पिशाचादि कभी उन्हें कष्ट न देते थे।
उन्होंने पापनाशी को देखकर नमसकार किया।
पापनाशी ने उत्तर देते हुए कहा-'भगवान तुम्हें शान्ति दे।'
पालम-'तुम्हें भी भगवान शान्ति दे।' यह कहकर उन्होंने माथे का पसीना अपने कुरते की अस्तीन से पौंछा।
पापनाशी-बन्धुवर, जहां भगवान की चचार होती है वहां भगवान अवश्य वर्तमान रहते हैं। हमारा धर्म है कि अपने सम्भाषणों में भी ईश्वर की स्तुति ही किया करें। मैं इस समय ईश्वर की कीर्ति परसारित करने के लिए एक परस्ताव लेकर आपकी सेवा में उपस्थिति हुआ हूं।

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